दूल्हा है, बारात है, दूल्हे और बारातियों का स्वागत है, स्वागत करने के लिए पूरा वधु पक्ष भी है, लेकिन नहीं है तो सिर्फ दुल्हन। बीकानेर की अनुठी साँस्कृतिक परम्पराओं मे शुमार एक ओर मिसाल के बारे मे प्रस्तुत है इस बार का आलेख -
होली एक विशिष्ट त्यौंहार है और होली पर विभिन्न प्रकार के विचित्र आयोजन भी किए जाते हैं। भारत में होली का त्यौंहार उल्लास, उमंग व परम्पराओं के निर्वहन के साथ मनाया जाता है। जहाँ ब्रज की लट्ठमार होली प्रसिद्ध है वहीं राजस्थान के बीकानेर की परम्परागत होली भी अपने आप में एक विशिष्ट स्थान रखती है। बीकानेर में होली का त्यौंहार आठ दिन तक परम्पराओं के निर्वहन के साथ मनाया जाता है। उसी परम्पराओं के अनुसरण में एक ऐसी परम्परा भी है जिसे सुनकर आप आश्चर्य किए बिना नहीं रहेंगें। आईए जानते हैं कि क्या है यह परम्पराः
बीकानेर के पुष्करणा ब्राह्मण समाज के हर्ष व व्यास जाति के लोगों के बीच विभिन्न परम्पराओं के साथ होली का त्यौंहार मनाया जाता है। इन परम्पराओं मे एक विवाह परम्परा भी होती है जिसमे एक दूल्हा होता है, दुल्हे के साथ पूरे बाराती होते है, दूल्हे और बारातियों का स्वागत करने के लिए वधु पक्ष वाले भी तैयार रहते है, लेकिन दुल्हन बगैर। होली के धुलण्डी वाले दिन शाम को हर्ष जाति का एक दूल्हा वाकायदा बैण्ड बाजों के साथ बारात लेकर व्यास जाति के घरों के आगे जाता है और इस दूल्हे के घर की औरतें पारम्परिक तरीके से स्वागत करती है, गीत गाती है और घर के पुरूष अपने घर आई बारात का आवभगत करते हैं, दूध, चाय व नाश्ते के साथ इस बारात का स्वागत किया जाता है लेकिन बिना दूल्हन और फेरे लिए ही यह दूल्हा उस घर से वापस रवाना हो जाता है। इस प्रकार यह दूल्हा बारी बारी से तेरह घरों में जाता है और इसी तरह अपना व बारातियों का स्वागत करवा कर वापस अपने घर बिना दूल्हन के ही आ जाता है। बीकानेर के हर्ष जाति में यह परम्परा करीब साढे चार सौ साल पुरानी है जिसका निर्वहन आज भी पूरी शिद्दत के साथ किया जाता है।
वास्तव में इस परम्परा के पीछे एक इतिहास जुडा है। किवदंती यह है कि करीब साढे चार सौ साल पहले बीकानेर में हर्ष व व्यास जाति के बीच जातिय संघर्ष हुआ था और इसमें मामला रक्तपात व राजदरवार तक गया था और जब वापस इन जातियों में समझौता हुआ तो समझौते के परिणामस्वरूप यह तय हुआ कि हर्ष जाति के लडकों को व्यास जाति के लोग अपनी बेटियाँ विवाह करके देंगे। इसी परम्परा के निर्वहन में प्रतीक स्वरूप आज भी अपनी विजय की जुलुस के रूप में हर्ष जाति के लोग अपने एक लडके को पारम्परिक विष्णु रूप में दूल्हा बनाकर ले जाते हैं। इस दूल्हे के साथ सैकडों की संख्या में बैण्ड की धुन पर नाचते गाते और विवाह के पारम्परिक गीत गाते हुए बाराती भी होते हैं। सर्वप्रथम यह बारात बीकानेर के मोहता चौक स्थित आनन्द भैरव मंदिर से रवाना होती है। इस दूल्हे को हर्ष जाति के पंच परिवार बनमाली जी हर्ष के घर में बनमाली जी के वंशज अपने हाथों से सजाते और संवारते हैं। खास बात यह है कि धुलण्डी वाले दिन जब सारे शहर के लोग रंग और गुलाल से होली खेल रहे होते हैं तो यह दूल्हा सिर्फ देखकर ही होली का आनंनद लेता है क्योंकि इस दिन दूल्हा अपने रंग व गुलाल नहीं लगा सकता और नही कोई और व्यक्ति इस दूल्हे के रंग व गुलाल लगाता है। तैयार होकर दूल्हे की यह बारात हर्षों की ढालान के नीचे बलावतों की गली में स्थित पंच व्यास जी के घर पर जाती है जहाँ घर की औरतें पुष्करणा समाज की विवाह परम्परा के अनुसार दूल्हे को घर की देहरी पर पोखती है अर्थात् स्वागत करती है। व्यास परिवार की यह औरतें वाकायदा बारात की स्वागत के परम्परागत गीत गाती है। यहाँ पर व्यास परिवार के पुरूष बारातियों के गुलाल लगाकर स्वागत करते हैं। यहाँ से बारात वापस निकल कर दम्माणियों के चौक में व फिर लालाणी व्यासों के चौक व किकाणी व्यासों के चौक में होते हुए वापस अपने चौक में आ जाती है। बारात का यह स्वागत तेरह घरों में किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि जो हर्ष जाति का लडका इस बारात में दूल्हा बनता है उसका एक साल के अंदर विवाह हो जाता है। वर्तमान का युवा वर्ग भी इस परम्परा से गहरे तक जुडा है और इसका निर्वहन करता है। तो अगर आपको भी इस बारात में शामिल होना है तो चले आईए बीकानेर इस धुलण्डी वाले दिन।
पुष्करणा स्टेडियम के पास, नत्थूसर गेट के बाहर, बीकानेर