अमिताभ बच्चन, भारतीय सिनेमा उद्योग के उस महानायक का नाम है जिसने अपने बेजोड अभिनय के बल पर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्घि की वह मंजिलें हासिल की हैं जिसकी तुलना भारत ही नहीं बल्कि शायद पूरे विश्व के किसी भी सिने उद्योग के किसी भी अभिनेता से नहीं की जा सकती। बेशक अमिताभ बच्चन को मिलेनियम स्टार जैसी उस उपाधि से नवाजा जा चुका है जोकि अब तक दुनिया में किसी भी अभिनेता या अभिनेत्री को नसीब नहीं हुई। परन्तु बडे दुःख का विषय है कि विश्व स्तर पर अपनी लोकप्रियता का लोहा मनवाने वाला यह महानायक आज अपने ही देश में कई ओर से आलोचनाओं का शिकार हो रहा है। यदि अमिताभ की यह आलोचना स्वच्छ, स्वस्थ एवं तर्कपूर्ण होती अथवा आलोचना करने वालों का अमिताभ की तुलना में अपना कोई व्यक्तित्व होता तो भी उन आलोचनाओं के महत्व को कुछ अहमियत दी जा सकती थी। परन्तु बडे अफसोस की बात है कि अमिताभ बच्चन पर उंगलियां उठाने वाले वे लोग हैं जो स्वयं को कहते तो भारतीय हैं परन्तु दरअसल वे क्षेत्रीय, संकीर्ण, सीमित एवं घटिया राजनीति के पैरोकार हैं। जो लोग अमिताभ बच्चन पर उंगलियां उठा रहे हैं, दरअसल वे स्वयं ऐसा कर अपनी प्रसिद्घि में इजाफा करना चाह रहे हैं। मुझे यह कहने में भी कोई हर्ज नहीं कि ऐसे लोगों की सोच राष्ट्रवादी नहीं बल्कि संकीर्ण, वैमनस्यपूर्ण तथा अलगाववादी है।
आज अमिताभ बच्चन पर उंगलियां उठाने वाले उनके विषय में तरह-तरह की बातें कर रहे हैं। ऐसा ही एक अनर्गल आरोप उन पर यह लगाया जा रहा है कि उन्होंने भारत के महाराष्ट्र राज्य, जहां कि भारतीय सिने उद्योग बसता है, में रहकर नाम, दाम व ख्याति आदि सब कुछ प्राप्त किया है। परन्तु उसके बावजूद उनका ध्यान महाराष्ट्र के बजाए उत्तर प्रदेश के विकास की ओर लगा रहता है। ऐसा आरोप लगाने वाले अलगाववादी मानसिकता के लोग अमिताभ बच्चन पर सीधे तौर से यह कहते हुए निशाना साधते हैं कि अमिताभ खाते तो महाराष्ट्र की हैं और गाते हैं उत्तर प्रदेश की। इतना ही नहीं बल्कि अब तो ऐसे लोग अमिताभ बच्चन को फिल्म जगत से सन्यास लेने की भी सलाह देने लगे हैं। यह कैसी विडम्बना है कि एक ओर तो एंगरी यंग मैन की छवि के रूप में अपना एकछत्र राज स्थापित कर चुका यह अभिनेता गत् कई वर्षों से बच्चों और बुजुर्गों का भी एक आदर्श बन चुका है। एक वरिष्ठ अभिनेता के रूप में भी उन्होंने स्वयं को वैसा ही या शायद उससे भी अधिक स्थापित कर लिया है जैसे कि वे एंगरी यंग मैन की भूमिका के दौरान थे। परन्तु इस असीम लोकप्रियता तथा उनके अभिनय की असीमित मांग के बावजूद अमिताभ के आलोचक उन्हें सिने जगत से अवकाश लेने की सलाह दे रहे हैं। आखिर यह बेमानी विरोध ईर्ष्या की पराकाष्ठा नहीं तो और क्या है?
बेशक क्षेत्रीय राजनीति के धुरंधर तथा अलगाववाद की आवाज बुलन्द कर अपनी राजनैतिक रोटी सेंकने वाले अमिताभ को कुछ भी कहें परन्तु उनके भीतर एक ऐसा व्यक्ति बसता है जिसने कभी भी अपने हृदय के किसी भी कोने में क्षेत्रवादी विचारधारा को हरगिज पनपने नहीं दिया। इत्तेफाक से मैं अमिताभ बच्चन के राजनैतिक सहयोगी के रूप में उस दौरान उनके साथ रहा हूं जबकि वे भारतीय संसद में इलाहाबाद संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। 11 जनवरी 1987 को उनके द्वारा संबोधित की गई अखिल भारतीय राष्ट्रीय एकता गोष्ठी सम्भवतः सांसद के रूप में इलाहाबाद में संबोधित की जाने वाली उनकी आखिरी गोष्ठी थी। प्रयाग संगीत समिति हॉल, इलाहाबाद में आयोजित इस गोष्ठी का मैं स्वयं संयोजक था। इस अवसर पर अमिताभ बच्चन ने राष्ट्रीय एकता के संबंध में जहां अनेकों बातें की वहीं उन्होंने एक ऐसी बात भी कह डाली जोकि आम नेता कहते हुए डरता व घबराता है। परन्तु उन्होंने इस प्रकार के उद्गार व्यक्त करने का बेखौफ साहस किया। अमिताभ ने कांग्रेसी सांसद होने के बावजूद तथा बावजूद इसके कि उनके घनिष्ठ मित्र राजीव गांधी उस समय देश के प्रधानमंत्री थे, फिर भी उन्होंने इस गोष्ठी में सार्वजनिक रूप से यह कह डाला कि राष्ट्रीय एकता की सोच को जन-जन तक पहुंचाने में यदि कुछ बाधक सिद्घ हो रहा है तो वह है हमारी भारतीय सेना के क्षेत्र व जाति के नाम पर बनाए जाने वाले अलग-अलग रेजिमेंट। अमिताभ ने कहा था कि क्या जरूरत है भारतीय सेना में सिख रेजिमेंट, जाट रेजिमेंट, पठान रेजिमेंट, गोरखा रेजिमेंट, राजपुताना राइफल्स, महार रेजिमेंट आदि अनेकों क्षेत्रीय अथवा जातिसूचक रेजिमेंट्स का गठन करने की। अमिताभ का मानना था कि एक देश में एक ही नाम की सेना होनी चाहिए। अर्थात् भारतीय सेना की मात्र भारतीय सेना अथवा इण्डियन आर्मी के नाम से ही पहचान प्रर्याप्त है। इसी भाषण के दौरान अमिताभ ने अपनी इस व्यथा का भी जिक्र किया था कि वे जब भी कहीं देश के बाहर जाते हैं तथा उन्हें कोई देशवासी मिलने आता है तो उन्हें अपना परिचय हिन्दुस्तानी होने के बजाए पंजाबी, मराठी या बंगाली बताकर देना ज्यादा बेहतर समझता है। अमिताभ का कहना था कि हम भारतवासियों की सोच ऐसी नहीं होनी चाहिए। हमें पहले स्वयं को भारतवासी के रूप में ही पेश करना चाहिए न कि किसी क्षेत्र अथवा जाति विशेष के प्रतिनिधि के तौर पर।
परन्तु दुःख का विषय है कि इतनी बुलन्द राष्ट्रवादी सोच रखने वाले इस महान अभिनेता पर उन लोगों द्वारा उंगलियां उठाई जा रही हैं, जिनकी राजनीति, जिनका ओढना बिछौना सब कुछ अलगाववादी विचारधारा पर ही आश्रित है। हां इस बात से मैं भी पूरी तरह सहमत हूं कि आज कई जगह अमिताभ बच्चन की आलोचना उनकी राजनैतिक दखल अंदाजियों के परिणामस्वरूप भी हो रही है। परन्तु मेरे जैसे जो लोग अमिताभ बच्चन को निकट से जानते हैं तथा जिन्हें अमिताभ के साथ रहकर काम करने, उनके व्यवहार, आचार-विचार को देखने व समझने का मौका मिला है, वे इस बात से भी भली-भांति परिचित हैं कि अमिताभ बच्चन ने राजनीति को सत्ता शिखर तक पहुंचने, धनार्जन अथवा प्रसिद्घि का माध्यम कभी नहीं समझा। बावजूद इसके राजनीति ने हमेशा ही अमिताभ के साथ घात ही किया है। निकट भविष्य में मेरी एक पुस्तक इसी विषय पर शीघ्र ही प्रकाशित भी होने वाली है जिसका शीर्षक भी ‘राजनीति का दंश’ है। इस पुस्तक में मैंने यह प्रमाणित करने का प्रयास किया है कि अमिताभ ने राजनीति के माध्यम से इस देश को क्या कुछ नहीं देना चाहा था। परन्तु नियति ने कुछ ऐसे हालात पैदा कर दिए कि वही राजनीति अमिताभ बच्चन के लिए ‘दंश’ के सिवा और कुछ नहीं साबित हुई।
आज भी अमिताभ बच्चन की आलोचना का प्रायः कारण यही देखा जा रहा है कि उनका झुकाव एक विशेष राजनैतिक दल की ओर है। जाहिर है जिस राजनैतिक दल की ओर अमिताभ का झुकाव है, उस दल की आलोचना करने वाले अमिताभ बच्चन को भी निशाने पर लेने से नहीं चूक रहे हैं। परन्तु इसमें भी कोई संदेह नहीं कि उनका झुकाव चाहे जिस राजनैतिक दल की ओर हो या यूं कहा जाए कि भले ही किसी भी राजनैतिक दल के कुशल प्रबंधकों द्वारा अमिताभ बच्चन को अपने साथ जोडे रखने का सफल प्रयास क्यों न किया गया हो, परन्तु इस बात में तो कतई कोई संदेह व्यक्त नहीं किया जा सकता कि मिलेनियम स्टार महानायक अमिताभ बच्चन किसी संकीर्ण अथवा क्षेत्रीय सोच में बंधे हुए व्यक्ति नहीं बल्कि वे राष्ट्रवादी विचारधारा रखने वाले एक महान महानायक हैं।
तनवीर जाफरी - [email protected]