इन दिनों विभिन्न खेलों के खिलाडी, सिने स्टार और अन्य सेलिब्रिटी टीवी पर प्रसारित होने वाले विज्ञापनों के जरिए भारतीय हॉकी में जान फूंकने का प्रयास करते नजर आ रहे हैं। साथ ही रविवार से राष्ट्रीय राजधानी में शुरू होने वाले विश्वकप के मैच देखने खुद के आने का वादा और आम भारतीय को आने का न्यौता भी दे रहे हैं मगर यहां प्रश्न यह उठता है कि सिर्फ इन प्रयासों से भारतीय हॉकी को वह सम्मान मिल पाएगा जो सवा अरब जनसंख्या वाले देश के राष्ट्रीय खेल को मिलना चाहिए।
राष्ट्रीय खेल के महाकुंभ को लेकर न ही सरकार या अन्य किसी राजनीतिक दल में जोश है और न ही आम खेलप्रेमी में वह जुनून और दीवानगी, जिसकी अपेक्षा यह खेल करता है। ओलम्पिक खेलों में आठ स्वर्ण सहित ग्यारह मैडल जीतने के सुनहरे अवसर को भुनाने की बजाय ओलम्पिक के लिए क्वालिफाई ही न कर पाना इस खेल का आज रह गया है, जो कि बडी शर्मनाक स्थिति है। हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद की विरासत को संभाल न पाना इस खेल के प्रेमियों को बुरा संदेश देता है।
भारत ने स्पेन में 1971 में खेल गए पहले हॉकी विश्वकप में तीसरा, 1973 में नीदरलैण्ड में खेले गए दूसरे विश्वकप में दूसरा स्थान प्राप्त किया। इसके बाद 1975 में मलेशिया में हुए विश्वकप में विश्वविजेता बनने का अवसर प्राप्त करने वाली टीम के लिए आगे के संस्करणों में सफलता दिवास्वप्न बन गई और इसीके साथ आमजन के दिल में इस खेल के प्रति आकर्षण कम होता गया।
विश्वकप के इस संस्करण में 12 देशों की टीमें प्रतिनिधित्व कर रही हैं जिनमें पूल ए में अर्जेंटीना, कन्नाडा, जर्मनी, कोरिया, नीदरलैण्ड और न्यूजीलैण्ड हैं वहीं पूल बी में आस्ट्रेलिया, इंग्लैण्ड, भारत, पाकिस्तान, दक्षिण अफ्रीका और स्पेन की टीमों को रखा गया है। हॉकी की इस विश्वस्तरीय स्पर्धा में अब तक पाकिस्तान चार बार, नीदरलैण्ड तीन बार, जर्मनी दो बार तथा भारत और आस्ट्रेलिया एक-एक बार विजयी सेहरा अपने सिर बांध चुके हैं। 1982 के बाद दूसरी बार इस आयोजन की मेजबानी करने वाले भारत के लिए यह मुकाबला खोए आत्मविश्वास, सुझबूझ के अलावा दूर की कोडी बन चुकी जीत को पुनः पाने का प्रयास करने का अवसर प्रदान करेगा।
इस बार हॉकी के विश्वपटल पर कौनसा देश अपनी छाप छोड पाने में सफल होगा यह तो भविष्य के गर्त में है लेकिन भारत के राष्ट्रीय खेल को खोई हुई प्रतिष्ठा और सम्मान दिलाने के लिए हर भारतीय को कंधे से कंधा मिलाकर आगे आना होगा। हॉकी के प्रति कम होती दीवानगी को किसी अन्य खेल के प्रति लगाव से तुलना करने की बजाय इस खेल के स्वर्णिम अतीत की कहानी दोहराने की कसम लेकर खिलाडयों को अपने श्रेष्ठ प्रदर्शन के लिए सर्वस्व झोंकना होगा, वहीं सरकार, राजनीतिक पार्टियों, बुद्धिजीवी और शिक्षित वर्ग को इसके विकास का बीडा उठाना होगा।
-हरि शंकर आचार्य, सहायक सूचना एवं जनसम्पर्क अधिकारी, श्रीगंगानगर