भारत त्यौहारों का भंडार है। हिन्दु -मुस्लिम, सिख-ईसाई सभी देशवासियों को अपना त्योहार मनाने की पूरी आजादी है। प्रत्येक त्यौहार हर्ष-उल्लास के साथ मनाया जाता है व सभी पर्व प्रेम-प्यार में अभिवृद्धि के घोतक माने जाते है। धुलण्डी से पूर्व फाल्गुन शुक्ल को होलाष्टक प्रारंभ होते हैं जो आठ दिन चलते है, पुराणों में होलिका के सबंध में बताया गया है कि दैत्यराज हिरण्यकश्यप अंहकार और सत्ता के मद में तीनों लोक में स्वंय को भगवान समझ बैठा था और अपने पुत्र भक्त प्रहलाद को भी यतानाएं देता था। प्रहलाद ने पिता को ईश्वर नही माना तो भस्म हो गई, प्रहलाद बच गया। कहते है कि धुलण्डी को ङ्क्षसह लग्र में चन्द्रग्रहण के बाद जिस व्यक्ति का जन्म होता है वह अत्यन्त यशस्वी, तेजस्वी और वैभवशाली होता है। नामों के आधार पर होली, होलिका फाल्गुणी तथा फाग का मद्य, लिंग उर्वरत्व तथा प्रजनन के साथ जोडने का प्रयास किया गया है जो यूनान व मिश्र की प्राचीन शब्दावली के साथ इसकी समीपता दिखाई गई है। एनसाइक्कलोपीडिया आफ रिलिजन एण्ड एथिक्स भाग-5 में होली का दो भाग में उल्लेख हुआ है। इसे मूलत: द्रविड उत्सव कहा गया है। होली- दहन इसका मुख्यांश माना गया है। डाल्टन के मत का विवेचन करने पर ज्ञात होता है कि अन्न भण्डार भर जाने पर जनता के हद्रय में उभरी व्यभिचार-भावना के विरेचन के लिए यह आयोजन होता है और इसमे बच्चे, भूल जाते है। ऋत्तुसंहार के पंतों बसन्त वर्णन्म नामक षष्ठ सर्ग का आरंभ ही महाकवि कालिदास इस प्रकार करते है-वीर बसन्त अपनी भ्रमरों की पाति की डोरी वाले धनुष और आन्ध्र -मंजरियों के पैने बाण लेकर संभोग करने वाले रसिको को बचने आ पंहुचा है। बसन्त में कामोन्माद से आक्रान्त प्रेमियों की स्थिति का सांगोपाग वर्णन तथा स्त्रियों के विभिन्न अंगो उनके हाव भाव तथा कार्य व्यवहार कामदेव के स्थित होने का विशद वर्णन बहुत ही मनोहारी तथा हमारे उद्देश्य से सूचक बन्द पडा है। होली पर्याप्त भारतीय पर्व है। ग्रन्थमीमांसा शास्त्रों में इसका उल्लेख हुआ है। कामशास्त्र के महान मनीषी वात्स्यायन इसे सुवसंतक नाम देते है। संस्कृत के सुप्रसिद्ध नाटकार हर्ष रत्नावली नाटिका में उलासमय होली का उल्लेख करते है। अल्बेरूनी इस रस पूर्ण पर्व के उल्लास व आकर्षक के भागी रहे है। यह सच है कि होली एक सास्ंकृतिक उत्सव है।