
मुझे याद है अपने बचपन के वो दिन जब टेलिफोन का काफी क्रेज हुआ करता था। हमारे मौहल्ले में रोहिणी कुमार जी पुरोहित के घर टेलिफोन हुआ करता था। उसका यंत्र काले रंगा का था और उसमें बडे बडे अक्षरों में अंक लिखे हुए थे जिसमें अंगुली डालकर नम्बर डायल किया जाता था। हमारे ही मौहल्ले के नहीं आस पडस के कईं मौहल्लों के घरों के फाने इसी नम्बर पर आया करते थे और वक्त जरूरत लोग किसी अपने को फोन करने के लिए भी यही यंत्र काम में लेते थे।
उस समय घर में फोन होना स्टेट्स सिम्बल माना जाता था। लोग बडी शान से बताते थे कि हमारे घर पर फोन है और समाज में भी फोन वाले घर के सदस्यों की बडी इज्जत होती थी। प्रत्येक व्यक्ति का कभी न कभी तो इस घर से काम पडता ही था। अगर किसी का फोन आ जाए तो जिस घर में फोन हुआ करता था उस घर का कोई सदस्य अपने पडौसी को या महल्ले के व्यक्ति को बुलाने जाता था। फिर वह व्यक्ति आकर वापस फोन आने का इंतजार करता और जब तक फोन आता था तब तक चाय नाश्ता या बातों में समय निकल जाता था। इसके विपरीत जब फोन करना होता तो लोग एक पर्ची पर नम्बर लिख कर ले जाते थे और घर के किसी बडे बुजुर्ग से इजाजत लेने के बाद कोई जानकार व्यक्ति
पर्ची में लिखे नम्बरों को मिलाकर देता था और बात होती थी। जब कोई बीमार होता, शादी ब्याह की बात हो रही होती या कोई जरूरी काम होता तो इस टेलिफोन का प्रयोग ज्यादा हो जाता था।

टेलिफोन के क्रेज का यह आलम था कि जब टेलिफोन की घंटी बजती तो घर के सभी सदस्यों न सिर्फ कान खडे हो जाते थे बल्कि शरीर मे फूर्ति आ जाती थी और सभी लपकते टेलिफोन की ओर और कोशिश होती कि कौन सबसे पहले फोन उठाए और बाकी जिन्होंने फोन रिसीव नहीं किया उन सबकी नजरें फोन उठाने वाले के चेहरे पर तब तक जमीं रहती जब तक वह फोन रख न दे और फोन रिसीव करने वाले के एक एक शब्द पर गौर किया जाता कि क्या बात हो रही है किससे हो रही है और किससके लिए फोन आया है का अंदाजा लगा लिया जाता।
और साहब जब कोई ट्रंककॉल करना होता या ट्रंककाल आता, ट्रंककाल मतलब शहर से बाहर का फोन मतलब एसटीडी साहब। जैसे कोई रिश्तेदार बाहर रहता और उसका फोन आ गया तो सांसे थम जाती थी, कि जनाब ऐसी क्या बात हो गई जो ट्रंककाल आया है। लोग अपना सब काम छोडकर भागते थे और जिसके घर के यंत्र पर ट्रंककाल आता वह भी गंभीर हो जाता और बात न होने तक सहानुभूति जताता कि कोई चिन्ता मत कर ऐसे ही किया होगा। ऐसा इसलिए होता कि ट्रंककाल काफी जरूरत होने पर किा जाता था और लगता भी मुश्किल से था तो लोग किसी की मृत्यु की सूचना या एक्सीडेंट की सूचना देने के लिए ही ज्यादातर ट्रंककाल का इस्तेमाल किया करते थे। वैसे कभी कभी बहुत ज्यादा खुशी होने पर भी इसका इस्तेमाल किया जाता। वैसे किसी दुखद घटना की सूचना तो ट्रंकाकल करने वाला उसी घर के बडे सदस्य को दे देता था जिसके घर टेलिफोन लगा होता था और फिर वह बडा सदस्य सहानुभूति के साथ संबंधित घर पर जाता और सारी परिस्थितियां जमाकर व माहौल बनाकर उस दुखद घटना की सूचना बताता।
ट्रंककाल में एक और महत्वपूर्ण बात होती थी जोर जोर से बोलकर बातें करना पडता था उस समय ऐसा लगता कि जितनी दूरी से फोन आया है उतना ही तेज बोलना पडेगा। लोकल कॉल तो उस समय भी हल्की आवाज में समझ आ जाती थी लेकिन एसटीडी में तो साहब पूरे गले की कसरत हो जाया करती थी और कोई बात पर्सनल नहीं रह सकती थी।
जनाब सब घरों में फोन हो यह उम्मीद भी नहीं की जाती थी और लोग अपने विजिटिंग कार्ड पर, शादी कार्डों पर और सभी सम्फ सूत्रों पर पीपी नम्बर लिखा करते थे जिसका मतलब होता कि यह फोन हमारे घर पर नहीं बल्कि पडौस में या मौहल्ले में ह। फिर इस पीपी का मजाक भी उडता कि पडौसी फोन या पडौसी परेशान आदि आदि। लेकिन इस देश के लोगों ने पीपी नम्बरों का प्रयोग सबसे ज्यादा किया होगा ऐसा मेरा मानना है और समाज के बुनियादी ढांचे की व्यवस्था देखिए कि पीपी नम्बर पर जब भी फोन आता तो लोग बडे गर्व के साथ बुलाने जाते और जिसके घर में फोन होता वो अपने पडौस वालों से कहता भी था कि चिन्ता मत करना पीपी में मेरा नम्बर दे देना।
मैने मेरे पिताजी से सुना है कि एक समय तो ऐसा था जब शहर में गिने चुने टेलिफोन हुआ करते थे और फोन का चोग उठाते ही डायल टॉन नहीं आती थी बल्कि ऑपरेटर से बात होती थी और उसको नम्बर बताना पडता था तब बात होती थी और ऑपरेटर को भी सभी नम्बर याद थे तो नाम से ही बता देते थे कि अमुक के यहां बात करवा दो जी।
इस फोन के यंत्र को रखने के लिए लकडी का एक विशेष बक्शा बनाया जाता था जिस पर एक ताला लगा होता ताकि हर कोई कॉल कर न सके और फोन की सुरक्षा रहे। घर की औरतें और खासकर लडकियां कसीदे का प्रयोग कर फोन के लिए फूल पत्तियां बना कवर बनाती थी जिसकी नियमित धुलाई होती थी और फोन को एक विशेष जगह दी जाती जहां वह सबको दिखाई दे।
एक बात तो भूल ही गया साहब कि उस समय फोन को रिसीव करना मुख्यतया आदमी ही करते थे, पति सबके सामने पत्नी से या पत्नी सबके सामने पति से फोन पर बात नहीं करती थी और अगर अपने जीवनसाथी या मंगेतर का फोन आ गया और गलती से सबके सामने रिसीव कर लिया तो तुरंत की पास खडे घर के सदस्य को चोगा पकडा दिया जाता और पास बैठे लोग समझ जाते कि किसका फोन आया है।
इस तरह यह फोन आस पास के कईं मौहल्लों को जोडे रखता था, उनका दुख सुख को साझा करता था और सामाजिक ताने बाने का एक हिस्सा था और कहीं न कहीं तहजीब झलकती थी इस फोन में लेकिन बदलते समय ने हर हाथ में मोबाइल दे दिया है, संचार क्रांति ने देशों की दूरियां तो घटा दी है लेकिन शायद दिलो की दूरीयों को बढा दिया है। आज का मोबाइल में वो जोर की आवाज कहां, वो पडौसी का चेहरा कहां, अपने दिल का बोझ हल्का कर पूरे परिवार व मौहल्ले के साथ बांटने का मजा कहां, चोगा उठाते ही लाज से लाल हुआ हो चेहरा कहां, पूरे परिवार के साथ बैठकर किसी अपने से बात करने का आनन्द कहां, आज का मोबाइल तो स्व केन्दि्रत हो गया है और सबके अपने अपने नम्बर है। आज का मोबाइल पत्नी पति से पति पत्नी से भाई बहन से बहन भाई से साझा नहीं करता।
वाह क्या दिन थे वो भी, लेकिन आज संचार क्रांति ने मरे घर के नम्बरों को भी भूतपूर्व बना दिया है, एक था 2211113 ।
श्याम नारायण रंगा ‘अभिमन्यु’
पुष्करणा स्टेडियम के पास
नत्थूसर गेट के बाहर
बीकानेर {राजस्थान}
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